छोटे छोटे सवाल –१६
तभी वाइस-प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह सिर की गोल टोपी सँभालते हुए बोल उठे, "हाँ, लालाजी, जब तो फैसला आपके ही हाथ में है।" फिर अपने साथियों की ओर देखकर वह बोले, "मैं अपनी तरफ से लालाजी को पूरे इख्तियार देता हूँ। जिसे चुन लेंगे मुझे मंजूर होगा।" अब कोई चारा ही न था। चूनाँचे तुरन्त ही सेक्रेटरी गनेशीलाल ने भी अपनी ओर से लालाजी को सारे अधिकार सौंप दिए। और लालाजी, जो इस स्थिति को टालने के लिए ही वहां से खिसक जाना चाहते थे, बुरी तरह फंस गए।
बात यह थी कि मास्टरों के चुनाव में लालाजी को छोड़कर शेष बारह मेम्बरों में से छह-छह के दल बन गए थे। एक दल गनेशीलाल के साथ था और दूसरा चौधरी नत्थूसिंह के। लालाजी ने आज तक किसी को नाराज करना सीखा ही न था। सदा ठकुर-सुहाती ही कही थी। कुछ देर माथे पर हाथ रखकर सोचने के बाद लालाजी बोले, "अब देख्खो कित्ती सान्ती है। ऐसे में मन से विचार भी उपजता है।"
वास्तव में कमरे में निस्तब्धता छा गई थी। दोनों पक्षों के लोग अपनी-अपनी सफलता की आशा में मुँह बाए लालाजी की ओर ताक रहे थे। लालाजी पर सबको विश्वास था कि फैसला हमारे पक्ष में करेंगे। तभी लालाजी बोले, "जग-जाहिर बात है भय्यो कि मास्टरों के चुनाव में दुनिया के हर स्कूल में प्रिंसिपल जरूर रहवै है। मगर हमारे यहाँ कोई प्रिंसिपल नहीं है इसलिए अगर पंचों की राय हो तो उत्तमचन्द का वोट भी ले लिया जावै, और वो जिसकू कहै उसै ही हम रख लेवें।"
लालाजी ने अपनी समझ से अपने बच निकलने की पूरी तैयारी की थी। पर दोनों पक्ष आज जैसे लालाजी को अपने प्रति वफादारी को तौल लेना चाहते थे। अतः कोई राजी नहीं हुआ। गनेशीलाल ने तो यहाँ तक कहा कि उत्तमचन्द लौंडा है। चौधरी नत्थूसिंह ने कहा कि लालाजी के होते हुए उससे राय मांगना निहायत बेवकूफ़ी है।